वांछित मन्त्र चुनें

अध्व॑र्यवो॒ यः स्वश्नं॑ ज॒घान॒ यः शुष्ण॑म॒शुषं॒ यो व्यं॑सम्। यः पिप्रुं॒ नमु॑चिं॒ यो रु॑धि॒क्रां तस्मा॒ इन्द्रा॒यान्ध॑सो जुहोत॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhvaryavo yaḥ sv aśnaṁ jaghāna yaḥ śuṣṇam aśuṣaṁ yo vyaṁsam | yaḥ pipruṁ namuciṁ yo rudhikrāṁ tasmā indrāyāndhaso juhota ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध्व॑र्यवः। यः। सु। अश्न॑म्। ज॒घान॑। यः। शुष्ण॑म्। अ॒शुष॑म्। यः। विऽअं॑सम्। यः। पिप्रु॑म्। नमु॑चिम्। यः। रु॒धि॒ऽक्राम्। तस्मै॑। इन्द्रा॑य। अन्ध॑सः। जु॒हो॒त॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:14» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले उपदेश में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अध्वर्यवः) अपने को यज्ञ कर्म की इच्छा करने वा सबके प्रियाचरण करनेवालो तुम (यः) जो जन सूर्य जैसे (स्वश्नम्) सुन्दर मेघ को वैसे शत्रु को (जघान) मारता है वा (यः) जो (शुष्णम्) सूखे पदार्थ को (अशुषम्) गीला वा (यः) जो (व्यंसम्) शत्रु को निर्भुज करता वा (यः) जो (नमुचिम्) अधर्मात्मा (पिप्रुम्) प्रजापालक अर्थात् राजा को वा (यः) जो (रुधिक्राम्) राज्य व्यवहारों के रोकनेवालों को निरन्तर गिराता है (तस्मै) उस (इन्द्राय) सूर्य के समान सेनापति के लिये (अन्धसः) अन्न (जुहोत) देओ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जैसे सूर्य मेघ को धारण कर वर्षाता है, वैसे जो कर को लेकर फिर देता है, दुष्टों को रोकवा के श्रेष्ठों को यथा समय रोकता, वह सेनापति होने योग्य है ॥५॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अध्वर्ययो यूयं यः सूर्यः स्वश्नमिव शत्रुं जघान यः शुष्णमशुषं यो व्यंसं करोति यः नमुचिं पिप्रुं यो रुधिक्रान्निपातयति तस्मा इन्द्रायांधसो यूयं जुहोत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यवः) (यः) (सु) सुष्ठु (अश्नम्) मेघम् (जघान) (यः) (शुष्णम्) शुष्कम् (अशुषम्) आर्द्रम् (यः) (व्यंसम्) विगता अंसा यस्मात्तम् (यः) (पिप्रुम्) पालकम् (नमुचिम्) योऽधर्मं न मुञ्चति (यः) (रुधिक्राम्) यो रुधीनावरकान् क्रामति तम् (तस्मै) (इन्द्राय) सूर्यायेव सेनेशाय (अन्धसः) अन्नस्य (जुहोत) दत्त ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो जनो यथा सूर्यो मेघं धृत्वा वर्षति तथा यो करं गृहीत्वा पुनर्ददाति दुष्टान्निरोध्य श्रेष्ठान्निरोधयति स सेनापतिर्भवितुं योग्यः ॥५॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य मेघांना धारण करतो व वृष्टी करवितो तसा जो माणूस कर घेऊन पुन्हा देतो, दुष्टांना रोखून श्रेष्ठांना योग्य वेळी संरक्षित करतो तो सेनापती होण्यायोग्य आहे. ॥ ५ ॥